◆ ”शर्मनाक पराजय तो सुना था लेकिन शर्मनाक विजय नहीं सुना था। गुजराती चुनाव परिणामों के बारे में आजकल यह मुहावरा पूरे समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। आखिर इसके निहितार्थ क्या हैं।क्या जीत भी कभी शर्मनाक हो सकती है। क्या हार भी कभी जीत के एहसास जितना आनंदित करती है।क्या विकास भी कभी पागल हो सकता है।क्या कोई प्रधानमंत्री एक राज्य का चुनाव जितने के लिए पडो़सी आतंकी देश पाकिस्तान का भय दिखा सकता है। क्या कोई प्रधानमंत्री जैसे मर्यादा के पद पर बैठे व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से नीच कह सकता है। क्या किसी दल का प्रवक्ता भाषा के स्तर पर इतना नीचे गिर सकता है कि वह प्रधानमंत्री को देश का बाप कह दे।”
जी हाँ, यह सबकुछ हो सकता है और हुआ भी बीते गुजरात चुनाव में।यह चुनाव इस कारण भी भारतीय लोकतंत्र में याद किया जायेगा कि भाषा के स्खलन और लोक मर्यादा को गुजरात चुनाव में तार तार कर दिया गया। इस चुनाव में इस बात की भी प्रतिस्पर्धा हुई कि कौन सा दल भाषा और मर्यादा के स्तर पर कितना नीचे गिर सकता है। कौन सा नेता और प्रवक्ता शब्दों के चयन में कितने घटिया और अमर्यादित शब्दों और जुमलों का प्रयोग कर सकता है। लगता है इस बात के लिए भी हार जीत की खुली प्रतियोगिता चल रही थी।
लोकतंत्र में लोक मर्यादा,लोकभाषा,लोक आचरण,लोक वेशभूषा पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और डा०लोहिया ने सर्वाधिक ख्याल किया और उनके सिद्धांत लोक आचरण की कसौटी पर खरे उतरते थें। उन्होंने ऐसी भाषा और आचरण को कभी लोक व्यवहार में नहीं प्रयोग किया जिसका वह अपने घर में प्रयोग नहीं कर सकते थे।महात्मा तो उस बिषय पर तब तक नहीं बोलते थे, जब तक उस बिषय से संबंधित ऐब उनके स्वयं के जीवन से दूर न हो गएं हों। इन महान व्यक्तियों की यह मान्यता थी लोकतंत्र में जो जितने बडे़ और जिम्मेदारी के पद पर है उसकी जिम्मेदारी और जबाबदेही भी उतनी बड़ी है। दुर्भाग्य यह कि जिस महात्मा ने अपने कठोर और संयमित जीवन को तपाकर लोक कल्याण के लिए खपा दिया और आचरण की शुद्धता को लोक मर्यादा व लोक व्यवहार की कसौटी पर खरा उतारा। आज उस बापू के घर आंगन (गुजरात)में ही उस लोक भाषा का चीर हरण हुआ और हो रहा है और उस साबरमती के गोंद में हो रहा जिसे बापू ने अपने खून पसीने से सींचा है। अहिंसा के पुजारी ने जीवन भर उसकी न केवल वकालत की बल्कि उसका पालन भी किया। हिंसा केवल शारीरिक नुकसान ही नहीं है बल्कि शब्दों का अमर्यादित चयन और उसका प्रयोग भी है।
आज सात दशक बाद उनके सिद्धांतों पर विश्व समुदाय मुहर लगा उनकी स्मृति को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ भले मनाए लेकिन बापू का आंगन ही आज भाषा के स्तर पर न केवल हिंसक और स्तरहीन हो गया है बल्कि उसे अमर्यादित और स्तरहीन भाषा का प्रयोगस्थली बन दिया गया है। मजे की बात यह कि एक तरफ उनकी पार्टी (कांग्रेस)और नाम (गांधी) को लोकतांत्रिक तिजारत में खपाया जा रहा है तो दूसरे देश के सर्वोच्च मर्यादित पद पर बैठने वाले प्रधानमंत्री जी इसी गुजरात से आतें हैं। एक तरह आज के दौर में गुजरातियों का ही भारतीय लोकतंत्र पर कब्जा है।लेकिन भाषा का आचरण ऐसा कि प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी शर्मा जाए। इतने स्तरहीन और सतही भाषा के प्रयोग की अपेक्षा हमारै प्रधानमंत्री जी से नहीं थी। क्या चुनाव जितना और सत्ता पर कब्जा ही लोकतंत्र है। क्या चुनाव जितने के लिए हम लोकस्थापित मूल्यों और व्यवहार को भी ताक पर रख कर देश चला सकते हैं। क्या हम जिस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं (सर्वोच्च पद पद होकर) उस तरह की भाषा का प्रयोग यदि सभी भारतीय करने लगें तो भारतीय समाज की लोक मर्यादा और सामाजिक संतुलन बच पायेगा।शायद नहीं, ऐसे चुनावों में हम हमारी पार्टी भले जीत जाए लेकिन लोकतंत्र और लोक आचरण तो हार ही जाएगा। गुजरात चुनाव में शायद यही हुआ।